पैदल चल रहा हूं साहेब
राह की फ़िक्र नहीं है मुझे...
सलामत रहू यही दुआ करता हूं रब से
घर पहुंचने की बस एक उम्मीद है...
ज्यादा उचे खाब देख लिए थे हमने..
देश की उन्नति में,
जमीन छीन लिए पैरो तले...
पैरो के रोंगटे भी छिल गए...
जा रहा हूं छोड़कर शहर उन्नति का...
लौटकर ना कभी आउगा शहर तुम्हारे..
सार्थक सृजन मेहनतकश का दर्द उकेरती सुंदर प्रस्तुति।
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